केवल कृष्ण पनगोत्रा
सियासी हलकों और बुद्धिजीवियों से निरंतर संवाद एवं एक साल की गहन दिमागी कसरत के बाद जम्मू-कश्मीर समस्या की भूलभूलैया को केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त वार्ताकारों की टीम ने रिपोर्ट की शक्ल देकर इसी महीने 12 अक्टूबर को गृह मंत्रालय को सौंप दिया। रिपोर्ट अभी सार्वजनिक नहीं हुई है, मगर 63-64 साल की जटिल समस्या पर त्वरित कयासबाजी का होना समस्या की गंभीरता का ही परिचायक है।
इस रिपोर्ट से जिस तरह राज्य के तीनों खित्तों की समस्याएं एवं आकांक्षाएं जुड़ी हुई हैं उसके मद्देनजर समस्या मात्र कश्मीर केंद्रित लोगों से ही संबद्ध नहीं है अपितु इसमें राज्य की गैर कश्मीरी जनता की दावेदारी भी अति महत्वपूर्ण है। इस लिहाज से समस्या मात्र एकमुखी नहीं है। अत: पूरे राज्य की समस्या को मात्र कश्मीर समस्या कहना गलत होगा। यही वजह है कि वार्ताकारों की टीम से पूर्व राज्य के दौरे पर आए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने भी संभवत: राज्य की समस्याओं की जटिलता के दृष्टिगत ही तीन वार्ताकारों को नियुक्त करने की बात की थी ताकि कश्मीर और कश्मीरियत के एकमुखी नजरिये से निकलकर जम्मू और लद्दाख के अलावा कश्मीरी विस्थापित पंडितों, पश्चिमी पाक और गुलाम कश्मीर के रिफ्यूजियों के नजरिए को भी पहचाना जाए। और राज्य के प्रत्येक जिले में जाकर समस्या का समीचीन स्वरूप खोजकर एक सर्वमान्य हल निकाला जाए।
इस काम के लिए वार्ताकारों की टीम को राज्य के 22 जिलों में 700 से ज्यादा प्रतिनिधिमंडलों से मिलना पड़ा। इस दौरान बहस और वार्ताओं का लंबा सिलसिला चला। मैं समझता हूं कि इस दौरान वार्ताकारों ने तीनों खित्तों की समस्याओं, सरकारी स्तर की विसंगतियों और अनियमितताओं के साथ सांस्कृतिक और सामाजिक अंतर और उससे जुड़ी सूक्ष्मता को बेहतर तरीके से जांचा-परखा होगा। यह बात दीगर है कि रिपोर्ट का सार तत्व, शैली और झुकाव कैसा है, मगर यह संतोष की बात है कि देश की जनता पहली बार जम्मू से भेदभाव के मर्म और कश्मीर केंद्रित नजरिए में अंतर और विरोधाभास को कुछ हद तक समझ सकेगी, विशेषत: ये लोग जो सदैव कश्मीर केंद्रित एजेंडे की पैरवी करते हैं। मीडिया आधारित जानकारी के अनुसार रिपोर्ट में वार्ताकारों ने जम्मू के साथ भेदभाव को मान्यता दी है।
यही वजह है कि रिपोर्ट में तीनों खित्तों के लिए क्षेत्रीय परिषदों की संस्तुति को भी शामिल बताया जा रहा है। इससे यह भी जाहिर सा लगता है कि लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा और जम्मू को अलग राज्य बनाने की मांगों के पीछे गैर बराबरी के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आधार भी मौजूद हैं। इस बात की भी पूरी संभावना बन रही थी कि राज्य में कहीं तेलंगाना जैसा आंदोलन न छिड़ जाए। इस आशंका के मद्देनजर भी किसी ऐसी टीम का विस्तृत दौरा और तीनों खित्तों की आकांक्षाओं की बात करना और एक संतुलित नजरिया जरूरी हो रहा था। अभी यह कहना मुश्किल है कि रिपोर्ट में की गई सिफारिशों में वार्ताकारों की कैसी दृष्टि झलकती है, मगर अलगाववादियों से बात न होने का मलाल पालने वाले वार्ताकारों के मुखिया को इस बात का मलाल भी होना चाहिए कि अलगाववादी सरकार के इस प्रयास की धज्जियां रिपोर्ट आने से पूर्व ही उड़ा चुके हैं।
बकौल, दिलीप पडगांवकर रिपोर्ट में राज्य की भलाई को केंद्र में रखा गया है और राज्य में स्थायी शांति बहाली का पूरा रोडमैप दिया गया है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि कश्मीर केंद्रित अलगाववादी सियासतबाजों से इतर जम्मू आधारित सियासी पार्टियां और गैर सियासी संगठन रिपोर्ट आने के बाद प्रतिक्रिया की बात कर रहे हैं। कोई स्वायत्तता का विरोधी हो सकता है तो कोई अनुच्छेद 370 का, मगर हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे कश्मीर केंद्रित अलगाववादी धडे़ तो पहले ही रिपोर्ट को खारिज कर चुके हैं। इससे स्पष्ट होता है कि वार्ताकारों की रिपोर्ट और सिफारिशें किसी भी समस्या का हल निकालने में विफल हो सकती हैं। इस रिपोर्ट और अब तक की सबसे भारी कसरत का हश्र भी वैसा ही हो सकता है जैसा 64 वर्ष के कश्मीर समस्या के हल को लेकर अनेक प्रयासों का हुआ है।
मीरवाइज मौलवी उमर फारूक तो पहले ही साफ कर चुके हैं कि कश्मीर समस्या का समाधान भारत और पाकिस्तान के संविधान के दायरे से बाहर ही तलाशा जा सकता है जबकि वार्ताकार संविधान के दायरे से बाहर नहीं जा सकते। मीरवाइज तो 14 अगस्त 1947 से पहले वाले जम्मू-कश्मीर की बात करते हुए संयुक्त राष्ट्र द्वारा पारित प्रस्ताव को अविलंब लागू करने की बात कर रहे हैं। अलगाववादी नेता ने साफ किया है कि भारतीय संविधान के भीतर समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता।
रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद अब अगर पुन: जम्मू संभाग की जनता, लद्दाखी, विस्थापित पंडित या विभिन्न शरणार्थी समूह या फिर कश्मीरी जनता संतुष्ट नहीं होती तो सरकार को अपनी चिरपरिचित कश्मीर नीति और राज्य की सियासत के मूल संवैधानिक आधारों को बदलना होगा। जम्मू संभाग की जनता के साथ-साथ लद्दाखियों, विस्थापित कश्मीरी पंडितों और विभिन्न शरणार्थी समूहों के मुतालबों पर ध्यान देना होगा और इस थ्योरी पर भी काम करना होगा कि कहीं 64 साल पुरानी समस्या का समाधान जम्मू संभाग, लद्दाख, विस्थापित कश्मीरी पंडितों और रिफ्यूजियों की मांगों में तो नहीं छिपा है? रिपोर्ट पर अलगाववादियों की प्रतिक्रिया से तो यही लग रहा है कि उन्हें भारत राष्ट्र और उसकी संवैधानिक व्यवस्था के दायरे में कुछ भी मंजूर नहीं। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि जम्मू-कश्मीर पर केंद्र का अस्पष्ट और ढुलमुल रवैया इस राज्य की सियासत को भूलभूलैया की स्थिति तक ले आया है और रास्ता बुलंद इरादों से ही निकलने वाला है।
(लेखक जेएंडके के सामाजिक विषयों के अध्येता हैं)
इस रिपोर्ट से जिस तरह राज्य के तीनों खित्तों की समस्याएं एवं आकांक्षाएं जुड़ी हुई हैं उसके मद्देनजर समस्या मात्र कश्मीर केंद्रित लोगों से ही संबद्ध नहीं है अपितु इसमें राज्य की गैर कश्मीरी जनता की दावेदारी भी अति महत्वपूर्ण है। इस लिहाज से समस्या मात्र एकमुखी नहीं है। अत: पूरे राज्य की समस्या को मात्र कश्मीर समस्या कहना गलत होगा। यही वजह है कि वार्ताकारों की टीम से पूर्व राज्य के दौरे पर आए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने भी संभवत: राज्य की समस्याओं की जटिलता के दृष्टिगत ही तीन वार्ताकारों को नियुक्त करने की बात की थी ताकि कश्मीर और कश्मीरियत के एकमुखी नजरिये से निकलकर जम्मू और लद्दाख के अलावा कश्मीरी विस्थापित पंडितों, पश्चिमी पाक और गुलाम कश्मीर के रिफ्यूजियों के नजरिए को भी पहचाना जाए। और राज्य के प्रत्येक जिले में जाकर समस्या का समीचीन स्वरूप खोजकर एक सर्वमान्य हल निकाला जाए।
इस काम के लिए वार्ताकारों की टीम को राज्य के 22 जिलों में 700 से ज्यादा प्रतिनिधिमंडलों से मिलना पड़ा। इस दौरान बहस और वार्ताओं का लंबा सिलसिला चला। मैं समझता हूं कि इस दौरान वार्ताकारों ने तीनों खित्तों की समस्याओं, सरकारी स्तर की विसंगतियों और अनियमितताओं के साथ सांस्कृतिक और सामाजिक अंतर और उससे जुड़ी सूक्ष्मता को बेहतर तरीके से जांचा-परखा होगा। यह बात दीगर है कि रिपोर्ट का सार तत्व, शैली और झुकाव कैसा है, मगर यह संतोष की बात है कि देश की जनता पहली बार जम्मू से भेदभाव के मर्म और कश्मीर केंद्रित नजरिए में अंतर और विरोधाभास को कुछ हद तक समझ सकेगी, विशेषत: ये लोग जो सदैव कश्मीर केंद्रित एजेंडे की पैरवी करते हैं। मीडिया आधारित जानकारी के अनुसार रिपोर्ट में वार्ताकारों ने जम्मू के साथ भेदभाव को मान्यता दी है।
यही वजह है कि रिपोर्ट में तीनों खित्तों के लिए क्षेत्रीय परिषदों की संस्तुति को भी शामिल बताया जा रहा है। इससे यह भी जाहिर सा लगता है कि लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा और जम्मू को अलग राज्य बनाने की मांगों के पीछे गैर बराबरी के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आधार भी मौजूद हैं। इस बात की भी पूरी संभावना बन रही थी कि राज्य में कहीं तेलंगाना जैसा आंदोलन न छिड़ जाए। इस आशंका के मद्देनजर भी किसी ऐसी टीम का विस्तृत दौरा और तीनों खित्तों की आकांक्षाओं की बात करना और एक संतुलित नजरिया जरूरी हो रहा था। अभी यह कहना मुश्किल है कि रिपोर्ट में की गई सिफारिशों में वार्ताकारों की कैसी दृष्टि झलकती है, मगर अलगाववादियों से बात न होने का मलाल पालने वाले वार्ताकारों के मुखिया को इस बात का मलाल भी होना चाहिए कि अलगाववादी सरकार के इस प्रयास की धज्जियां रिपोर्ट आने से पूर्व ही उड़ा चुके हैं।
बकौल, दिलीप पडगांवकर रिपोर्ट में राज्य की भलाई को केंद्र में रखा गया है और राज्य में स्थायी शांति बहाली का पूरा रोडमैप दिया गया है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि कश्मीर केंद्रित अलगाववादी सियासतबाजों से इतर जम्मू आधारित सियासी पार्टियां और गैर सियासी संगठन रिपोर्ट आने के बाद प्रतिक्रिया की बात कर रहे हैं। कोई स्वायत्तता का विरोधी हो सकता है तो कोई अनुच्छेद 370 का, मगर हुर्रियत कांफ्रेंस जैसे कश्मीर केंद्रित अलगाववादी धडे़ तो पहले ही रिपोर्ट को खारिज कर चुके हैं। इससे स्पष्ट होता है कि वार्ताकारों की रिपोर्ट और सिफारिशें किसी भी समस्या का हल निकालने में विफल हो सकती हैं। इस रिपोर्ट और अब तक की सबसे भारी कसरत का हश्र भी वैसा ही हो सकता है जैसा 64 वर्ष के कश्मीर समस्या के हल को लेकर अनेक प्रयासों का हुआ है।
मीरवाइज मौलवी उमर फारूक तो पहले ही साफ कर चुके हैं कि कश्मीर समस्या का समाधान भारत और पाकिस्तान के संविधान के दायरे से बाहर ही तलाशा जा सकता है जबकि वार्ताकार संविधान के दायरे से बाहर नहीं जा सकते। मीरवाइज तो 14 अगस्त 1947 से पहले वाले जम्मू-कश्मीर की बात करते हुए संयुक्त राष्ट्र द्वारा पारित प्रस्ताव को अविलंब लागू करने की बात कर रहे हैं। अलगाववादी नेता ने साफ किया है कि भारतीय संविधान के भीतर समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता।
रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद अब अगर पुन: जम्मू संभाग की जनता, लद्दाखी, विस्थापित पंडित या विभिन्न शरणार्थी समूह या फिर कश्मीरी जनता संतुष्ट नहीं होती तो सरकार को अपनी चिरपरिचित कश्मीर नीति और राज्य की सियासत के मूल संवैधानिक आधारों को बदलना होगा। जम्मू संभाग की जनता के साथ-साथ लद्दाखियों, विस्थापित कश्मीरी पंडितों और विभिन्न शरणार्थी समूहों के मुतालबों पर ध्यान देना होगा और इस थ्योरी पर भी काम करना होगा कि कहीं 64 साल पुरानी समस्या का समाधान जम्मू संभाग, लद्दाख, विस्थापित कश्मीरी पंडितों और रिफ्यूजियों की मांगों में तो नहीं छिपा है? रिपोर्ट पर अलगाववादियों की प्रतिक्रिया से तो यही लग रहा है कि उन्हें भारत राष्ट्र और उसकी संवैधानिक व्यवस्था के दायरे में कुछ भी मंजूर नहीं। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि जम्मू-कश्मीर पर केंद्र का अस्पष्ट और ढुलमुल रवैया इस राज्य की सियासत को भूलभूलैया की स्थिति तक ले आया है और रास्ता बुलंद इरादों से ही निकलने वाला है।
(लेखक जेएंडके के सामाजिक विषयों के अध्येता हैं)
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