श्रीनगर। ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर में राजनीतिक गतिविधियों का अखाड़ा बने रहने वाले टीआरसी मैदान में वीरवार को अलग ही नजारा था। लोगों का जमावड़ा खूब था, लेकिन न कोई किसी के पक्ष में नारा दे रहा था और न कोई किसी के खिलाफ जहर उगल रहा था। कोई किसी राजनीतिक दल या मजहब का नहीं था, सब एक समान, आम नागरिक बन जमा हुए थे ताकि अधर्म पर धर्म की जय का प्रतीक विजयादशमी का मनाते हुए बुराई के रावण को जला सकें। वर्ष 2009 में इसी मैदान में दशहरा मनाया गया था। वर्ष 2010 में वादी में जारी हिंसक प्रदर्शनों और अलगाववादियों के बंद के कारण कश्मीर के लोग रावण को नहीं जला पाए थे। यहां वर्ष 1989 तक इकबाल पार्क के पास दशहरा मनाया जाता था। इसके बाद आतंकवाद के कारण यह परंपरा भंग हो गई और फिर वर्ष 2007 में कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति ने जीवित करते हुए कश्मीर में दशहरे का आयोजन करते हुए रावण, कुभकर्ण और मेघनाद व लंका दहन किया था। अलबत्ता, वर्ष 2008 में भी कश्मीर के तत्कालीन हालात के चलते दशहरा नहीं मनाया जा सका था। इस बार भी कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति ने टीआरसी मैदान में दशहरे का आयोजन किया, जहां मेले जैसा माहौल था। शाम छह बजे रंगबिरंगी आतिशबाजी के बीच जब रावण, मेघनाद और कुंभकर्ण के पुतले जले तो वहां लोगों का उत्साह देखने लायक था। कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के प्रमुख संजय टिक्कू ने कहा कि यह पर्व उन सभी लोगों का है, जो धर्म और सच्चाई के मार्ग पर चलते हैं। इसलिए हमें इसके आयोजन में मुश्किल नहीं आई है। लोक जनशक्ति पार्टी के नेता संजय सर्राफ ने कहा कि कश्मीर में दशहरा कश्मीरियत का प्रतीक है। यहां हिंदुओं से कहीं ज्यादा मुस्लिम ही हैं। मुस्लिम समुदाय के सहयोग से ही आयोजन सफल हुआ है। मुझे उम्मीद है कि जिस तरह यहां रावण को जलाया है, उसी तरह हम अपने अंदर के रावण को जलाकर कश्मीर को फिर से स्वर्ग बनाने के लिए मिलकर काम करेंगे। हब्बाकदल के 60 वर्षीय अली मुहम्मद भट ने रुंधी आवाज में कहा कि टीआरसी ग्राउंड का माहौल देखकर मुझे 40-45 साल पुराना कश्मीर याद आ रहा है। उन दिनों हम इसी तरह अपने पंडित भाइयों के साथ दशहरा मनाते थे।
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